Tuesday, June 12, 2012

रांची से प्रकाशित दैनिक प्रभात खबर में मेरे द्वारा भेजा गया पत्र


बिश्नोई समुदाय की पर्यावर्णीय सचेतता

जलवायु परिवर्तन एंव प्राकृतिक पर्यावरण का निरंतर हो रहा ह्रास आधुनिक विश्व की शीघ्रता से समाधान की अपेक्षा रखने वाली समस्याऐं हैं जो निकट भविष्य में प्रत्येक प्रकार से विप्पत्ति में बदलने की  क्षमता रखती है. जिस विकास को मानव जीवन-स्तर को उत्तमतर करने का सर्वाधिक उपयुक्त एंव प्रासंगिक उपाय  मानकर सर्वोपरी रखा गया आज उसी विकास की प्रक्रिया के समानांतर  दुष्परिणाम पृथ्वी के जीवन सुसाध्य पर्यावरण के अपरिवर्तनीय अपघटन के रूप में हमारे सामने आ रहे है. मानवीय गतिविधियों से हो रहा प्राकृतिक पर्यावरण का क्षरण उसी के जीवन को रसातल में पहुँचाने में उत्प्रेरक सिद्ध हो रहा है. पृथ्वी के पर्यावरण को ह्राश से बचाने  के लिए विश्व के देश विभिन्न मंचों पर एकत्रित होकर उपाय ढूंढने  के प्रति गंभीर प्रतीत हो रहे हैं.  किन्तु दुर्भाग्य से विकास का कोई विकल्प अभी तक अविष्कृत नही हो पाया है.
प्रश्न अपने स्थान पर अचल है: कैसे पृथ्वी के पर्यावरण को ऋणात्मक परिवर्तन से बचाकर मानव-जाती के अस्तित्व को दीर्घ किया जाये
ऐसे में एक उत्तर भारतीय मरुस्थलीय मानव-समुदाय की जीवन शैली विकल्पों में नवीनता की उम्मीद जगाती  है. इसे बिश्नोई समुदाय के नाम से जाना जाता है. यह पर्यावरण संरक्षण को समर्पित संभवत विश्व का सबसे बड़ा मानव समूह है.  सन 1485 में महान पर्यावरणविद संत गुरु जम्भेश्वर जी के द्वारा स्थापित यह समुदाय 29 नियमो का पालन करता है जिसके कारण इस समुदाय का नाम बिश्नोई (20+9) पड़ा. इन उनतीस नियमों में से आठ नियम प्राकृतिक संसाधन एंव जैव-विविधता संरक्षण का निर्देश देते हैं. इस समुदाय के लोग शुद्ध शाकाहारी होते हैं एंव इनके खेतों में हिरन, नीलगाय, मौर, तितर आदि पशु और पक्षी निर्भीक विचरण करते देखे जा सकते हैं. ये हरे वृक्ष को  ना  तो काट ते हैं एंव ना ही काटने देते हैं. सन 1730 इसवी में जोधपुर राजस्थान के खेजडली नामक गाँव में राजा के सैनिकों के द्वारा खेजड़ी वृक्ष काटने से रोकने के क्रम में बिश्नोई समुदाय के 363 लोगों ने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था. पर्यावरण संरक्षण के प्रति ऐसी आसक्ति समस्त विश्व में दुर्लभ एंव अनुकरणीय है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का असहयोग आन्दोलन इसी महान घटना से प्रेरित हुआ था. सन 1970 के दशक में वर्तमान उत्तराखंड में चला विश्व प्रसिद्द चिपको आन्दोलन भी खेजडली की घटना से प्रेरित था. इस समुदाय के लोगों के द्वारा वन्य जीवों की रक्षार्थ दिए गए आत्म-बलिदानों की सूची भी लम्बी है. कठिन एंव कम संसाधनों के मरुस्थलीय जीवन में प्रकृति के साथ सहिष्णुता बनाये रखते हुए ये लोग आसानी से अपना जीवन-यापन करते हैं. वन्य प्राणियों एंव वनस्पति की प्रजातियों में विविधता बिश्नोई बहुल क्षेत्रों का भौगोलिक संकेतक है. जहाँ विश्व की जैव-विविधता लुप्त होने के खतरे से दो-चार है वहीँ बिश्नोई बहुल क्षेत्र इको-पर्यटन के केंद्र बनने की और अग्रसर है.       
प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण में बिश्नोई समुदाय का पारम्परिक ज्ञान ह्राश की और बढ़ते विश्व के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है.  आवश्यकताएं कम रखना एंव उन्हें बिना प्रकृति को हानि पहुंचाए पूरा करना इस पांच शताब्दी पुराने समर्पित समुदाय की पर्यावरण के सफल संरक्षण की कुंजी है.
संतोष पुनिया

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