Thursday, June 7, 2012



अमर-अमृता

प्रात: पापी प्रकटा गिरधारी तरुघन,
जा चिपकी वह पेड़ से नहीं काटने दूंगी वनA
कोमल काया जान कर उड़ाया था अबला का उपहास,
चकराया पापी देख कर वीरांगना का दुस्साहसA
'सिर सांटे रूंख रहे' का हुआ  उद्घोष,
गरजी वह स्याह मेघ सी, पापी के उड़े थे होशA
जली जोत बलिदानों की, तीन सौ तिरसठ हुई आहुति,
अंत विजय 'पंथ श्रेष्ठ' की 'जिया जुक्ति मुआ मुक्ति'A
अखंड रखा प्राण देकर पंथ बिश्नोई का मूल,
प्रखर-प्रचंड-प्रकाशित, ओजस्वी-अमर-अमृता-अमूलA
अमर है -मृत अमृता, सम्पूर्ण साकार,
धन्य धरा खेजडली, हुआ माँ प्रकृति का अवतार A A

संतोष पुनिया

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