हरी कंकेड़ी मंडप मेड़ी जहाँ हमारा वासा:
श्री गुरु जम्भेश्वर के कथन के गूढ़ वैज्ञानिक अभिप्राय
(Maytenus
imarginata: The mystic tree of Bishnoism)
बिश्नोई धर्मग्रंथ सबदवाणी
(Sabadvani) में पृथ्वी अठारह भार वनस्पति से सुशोभित बताई गयी है एंव बिश्नोई
पौराणिकी (Bishnoi Mythology) में वृक्षों की बहुत सी प्रजातियों (Species) का सन्दर्भ प्राप्त
होता है. इन सभी प्रजातियों में से कंकेड़ी वृक्ष को बिश्नोइज्म में सर्वोच्च स्थान
प्राप्त है एंव यह बिश्नोइज्म के प्रथम वृक्ष (First tree of Bishnoism) के रूप में
स्थापित है. बिश्नोई इतिहास, पौराणिकी एंव धर्मग्रंथों में कंकेड़ी के प्रति बिश्नोइज्म
की प्रगाढ़ श्रद्धा के कारण सुसपष्ट हैं.
सबदवाणी सबद संख्या 73
की प्रथम पंक्ति में
श्री गुरु जम्भेश्वर ने कहा: “हरी कंकेड़ी मंडप मेड़ी जहाँ हमारा वासा” (कंकेड़ी
वृक्ष मेरे निवास हैं). उन्होंने स्वयं को भगवान विष्णु का अवतार अर्थात ईश्वर
माना. इस प्रकार अर्थ यह निकला की कंकेड़ी वृक्ष में ईश्वर का निवास (God’s
dwelling) है. विश्व
के सभी धर्मों में ईश्वर को सर्वव्यापक (Omnipresent) माना गया है किन्तु साथ ही यह भी माना
गया है की उसकी उपस्थिति का अनुभव करना दुष्कर है और यह कठोर मानसिक अभ्यास एंव अध्यात्मिक
उत्थान से ही संभव हो सकता है. ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करना पूर्णानंद (Bliss) है एंव
विश्व के सभी धर्म और धर्मगुरु उसकी उपस्थिति को अंत:करण व बाह्य: करण में अनुभव
करने का सन्देश देते हैं. बिश्नोइज्म में भगवान का
अतिशयोक्तिपूर्ण महिमामंडन (Exaggerated
glorification) ना करते हुए उसके नाम को जपकर उसकी उपस्थिति को
अनुभव करने का सन्देश है. (विष्णु-विष्णु तू भण रे प्राणी).
इन सब में विचारणीय
यह है की मरुस्थल में उपलब्ध असंख्य वृक्ष प्रजातियों में से श्री गुरु जम्भेश्वर ने स्व-निवास
का दर्जा केवल कंकेड़ी को ही क्यों दिया? अन्य किसी वृक्ष की अपेक्षा उन्होंने कंकेड़ी को
ही सर्वश्रेष्ठ क्यों चुना? निर्वाण के लिए भी उनका इसी वृक्ष को चुनना क्या मात्र
एक संयोग है अथवा यह कंकेड़ी वृक्ष की रहस्यमयी महत्वपूर्णता (Mystic
significance) के
बारे में उनके द्वारा छोड़े गये गूढ़ संकेतों की एक श्रृंखला है?
कंकेड़ी में छुपे कुछ
गहन रहस्यों की ओर श्री गुरु जम्भेश्वर ने अपने समयकाल में बहुत से संकेत दिए. क्या
इस वृक्ष में कुछ अध्यात्मिक अथवा परालौकिक रहस्य छुपे हैं? क्या इस वृक्ष का जीवन
चक्र (Life cycle) कोई ईश्वरीय सन्देश का पर्याय है? क्या श्री गुरु जम्भेश्वर इस वृक्ष
को बिश्नोइज्म के सजीव ग्रन्थ (Alive Scripture) के रूप में स्थापित करना चाहते थे? क्या उन्होंने
कंकेड़ी वृक्ष को ईश्वर (बिश्नोइज्म के सन्दर्भ में “विष्णु”) की उपस्थिति अनुभव
करने के एक माध्यम के रूप में निरुपित किया था? सामयिक विश्व (Contemporary
World) के कई
धर्मों में वृक्ष-आराधना (Dendrolatry) का प्रचलन है किन्तु बिश्नोइज्म की यह अवधारणा पूर्णतया
नवीन व अनूठी प्रतीत होती है जिसमे एक वृक्ष विशेष को ईश्वर-अनुभूति का
माध्यम माना गया है.
कंकेड़ी वृक्ष
को हिंदी में कंकेड़ी, कंकेडो तथा मालकंगनी अंग्रेजी भाषा में “थोर्नी
स्टाफ ट्री” (Thorny staff tree) और संस्कृत में “विकंकटा” के नाम से जाना जाता
है. इसका वैज्ञानिक नाम Maytenus emarginata (मैटीनस इमारजीनेटा) है जो सिलेसट्रेसी (Celastraceae) वृक्ष-परिवार
(Tree family) से सबंधित है. वास्तव यह एक झाड़ी (Shrub) होती है जो वर्षों
के बाद एक छोटे वृक्ष में रूपांतरित हो जाती है. चारा, लकड़ी, इंधन, छाया इसके
मुख्य उत्पाद हैं. यह एक सदाबहार वृक्ष (evergreen
tree) है जो
मरुस्थलीय पर्यावरण के द्वारा अधिरोपित (Imposed) विभिन्न प्रकार के तनावों (Stresses)
को आसानी से सहन कर
सकने में सक्षम है. मरुस्थल के जीवन प्रतिकूल वातावरण में इसका सदाबहार होना इसके
विशेष होने का प्रथम संकेत है. क्या इस वृक्ष में ईश्वरीय उपस्थिति इसके सूखे
रेगिस्तान में सदाबहार होने का कारण है? दूसरा संकेत इसका जैविक रोगकारक परजीवियों
(Biological stresses) से सर्वथा मुक्त होना है. यह इसके चमत्कारी औषधीय (Miraculous medicinal
effects) प्रभावों
का संकेत भी है.
बिश्नोइज्म में
पवित्र माने जाने के अतिरिक्त मरुस्थलीय पर्यावरण (Environment) एंव पारिस्थितिकी (Ecology)
के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण
होते हुए भी यह एक संकटग्रस्त (Endangered) प्रजाति है. इसके संकटग्रस्त
होने के मुख्य कारण अंधाधुंध कटाई से अत्यधिक दोहन (Overexploitation), अकाल (Drought),
पक्षियों एंव अन्य जंतु जो इस वृक्ष के बीजों को स्थानांतरित (Seed
dispersing species) करते
हैं की संख्या में आ रही निरंतर कमी, विदेशी वृक्ष प्रजातियों (Invasive
alien species) जैसे की इजरायली बबूल (Acacia tortilis),
विदेशी कीकर (Parkensonia), कुमट (Acacia senagal),
(Prosopis juliflora) आदि की मरुस्थलीय पारितंत्र (Ecosystem) में
प्रचंड घुसपैठ है.
एक आधार प्रजाति (Keystone
species) होने
कारण इसका पारिस्थितिकीय एंव पर्यावरणीय महत्व और अधिक बढ़ जाता है. आधार प्रजाति
से अभिप्राय उन प्रजातियों से है जिनके अस्तित्व पर अन्य दूसरी प्रजातियों का
अस्तित्व निर्भर करता है. कंकेड़ी वृक्ष अन्य कई जीव जंतुओं एंव पक्षियों को निवास एंव
पत्तियों व फलों के द्वारा भोजन उपलब्ध करवाकर इन प्रजातियों के अस्तित्व को बनाये
रखने में सहायक है.
दुर्लभ
होते जा रहे इस वृक्ष के संरक्षण हेतु जैव प्रोद्योगिकी विभाग, विज्ञान एंव तकनीक
मंत्रालय, भारत सरकार की संस्था “कन्सोर्शीअम ऑफ़ माइक्रोप्रोपगैशन रिसर्चर्स एंड
टेक्नोलजी डेवलपमेंट” (Consortium of Micropropagation Researchers and
Technology Development, Department of Biotechnology,
Ministry of Science and Technology, Governement of India) ने
राजस्थान राज्य में से कंकेड़ी वृक्ष के जननदर्व्यों (Germpalsm) का समाहरण (Collection)
किया जिसमे कुछ
महत्वपूर्ण जननदर्व्यों का समाहरण बिश्नोई तीर्थ स्थलों मुकाम एंव खेजडली से किया
गया. बिश्नोई समुदाय के लिए कंकेड़ी वृक्ष का महत्व बताते हुए इस रिपोर्ट में लिखा
गया, “It is sacred plant for environment-friendly
Bishnoi community. It is believed that Lord Jambheshwar (Jambhoji) has
realization under tree of Maytenus emarginata. (यह
पर्यावरण हितैषी बिश्नोई समुदाय के लिए एक पवित्र वृक्ष है. ऐसी मान्यता है की भगवान
जम्भेश्वर (जाम्भोजी) को इस वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई). यह सुचना
हालांकि तथ्यात्मक रूप से सही नही (Factually incorrect) है (क्योंकि
जाम्भोजी ने इस वृक्ष के नीचे ज्ञान नही अपितु निर्वाण प्राप्त किया था) तथापि
यह बिश्नोई समुदाय के लिए इस वृक्ष की महत्पूर्णता को राष्ट्रीय स्तर पर सफलतापूर्वक
रेखांकित करती है.
कंकेड़ी एक
बहि:प्रजनन (Outbreeding) करने वाली प्रजाति है और इसी कारण इसमें बहुत
अधिक स्व-प्रजाति विविधता (Intraspecific variablity) पाई जाती है. बीजों से अंकुरित होने वाले
पौधे आकार एंव प्रकार में अलग होते हैं. इस प्रजाति में अलैंगिक अथवा वानिस्पतिक
प्रजनन (Asexual or vegetative reproduction) नही पाया जाता है. इस कथन से अभिप्राय यह
है की इस वृक्ष को कलम विधि से नही उगाया जा सकता है. कंकेड़ी की आनुवंशकीय दृष्टि
से एक समान, स्वस्थ एंव बड़ी संख्या में पौध प्राप्त करने के उद्देश्य की प्राप्ति
के लिए उपरोक्त संस्था के द्वारा उत्तक संवर्धन तकनीक (Tissue culture
technology) पर
आधारित नवाचार (Protocol) को सफलतापूर्वक विकसित किया गया है.
भारत में कंकेड़ी कई
प्रदेशों में पायी जाती है किन्तु राजस्थान राज्य इस प्रजाति का प्राकृतिक निवास (Natural
habitat) है और
यहाँ भी यह सबसे अधिक बिश्नोई निवासित क्षेत्रों में पायी जाती है. एक प्रकार से
चिंकारा (Indian gazelle) के अतिरिक्त कंकेड़ी वृक्ष बिश्नोई
उपस्थिति का भौगोलिक संकेतक (Geographical indicator) बन चुकी है. वन, खदानों एंव उसर भूमि मे लगाने के लिए यह
वृक्ष अनुसंशित (Recommended) है एंव इस लेख के माध्यम से मैं इसे नागरीय
वानिकी (Urban forestry) के लिए अनुसंशित करती हूँ. नागरीय वानिकी से
अभिप्राय इसे शहरों में चिन्हित खाली स्थानों, सड़कों, फुटपाथ, पार्कों आदि में
लगाने से है.
औषधीय दृष्टि से कंकेड़ी
एक चमत्कारी वृक्ष है. इसके विभिन्न भागों (छाल, पत्ते, कांटे, लकड़ी, जड़, राल आदि)
के विभिन्न औषधीय गुण वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित एंव निबंधित (Scientifically
approved & documented) है. पारम्परिक औषधिय पद्धति (Traditional medicinal system) में इसकी जड़ को जठरांत्र की परेशानियों (Gastrointestinal disorders), विशेष
रूप से पेचिश
(Dysentery)
में, कच्ची टहनियों को मुंह के छालों (Mouth ulcers) में, पत्तेदार टहनियों के काढ़े (Decoction) को
दांत दर्द (Toothache)
में, छाल को पीसकर सरसों के तेल में मिलाकर जुंओं
(Lice) से मुक्ति पाने के लिए सिर में लगाने में, कच्चे पत्तों को पीलिया (Jaundice) में, पत्तों को पीसकर दूध के साथ मिलकर बच्चों के पेट के कीड़ों को दूर
करने की दवा के रूप में, पत्तों की राख को घाव भरने की दवाई के रूप में और
फलों को रक्त शोधक (Blood purifier) के रूप में
प्रयोग किया जाता रहा है. बिश्नोई समुदाय के लोगों के द्वारा इसका प्राचीन
काल से ही औषधीय प्रयोग किया जाता रहा है इसलिए यह वृक्ष उनके सामुदायिक वनस्पतीय
औषधि शास्त्र (Ethnomedicinal Botany) का अंगभूत भाग है.
सन 1999 में टॉयमा मेडिकल
एंड फार्मास्यूटिकल यूनिवर्सिटी जापान (Toyama Medical and Pharmaceutical
University, Japan) के डॉ
हुसैन एंव उनकी टीम के द्वारा किये गये अनुसन्धान में कंकेड़ी वृक्ष से प्राप्त कुछ
सार द्रव्यों के एच.आई.वी. एड्स (HIV AIDS) में प्रभावशाली होने की बात कही गयी है. इसी
प्रकार के अन्य वैज्ञानिक अनुसंधानों में इस वृक्ष से प्राप्त रसायनों के अल्सर, कैंसर,
(विशेषत रक्त कैंसर), बहुऔषधिय प्रतिरोधी टी. बी. (Multi drug resistant
tuberculosis) आदि
में प्रभावी होने का तथ्य प्रकट हुआ है.
अन्य वैज्ञानिक
अनुसंधानों में कंकेड़ी के एक से एक चमत्कारी चिकत्सकीय प्रभावों (Healing
effects) की
खोज सामने आ रही है. चिकित्सा विज्ञान भविष्य में इस वृक्ष से असाध्य रोगों के लिए
रामबाण औषधियां तैयार करेगा इस बात की पुख्ता उम्मीद राखी जा सकती है.
क्या भगवान जाम्भोजी
ने स्वयं का निवास इस वृक्ष में बताकर इसकी अद्वितीय चिकित्सकीय विशेषताओं (Healing
features) की ओर
संकेत किया था? क्योंकि ईश्वर की उपस्थिति में किसी प्रकार के रोग दोष की उत्पत्ति
अकल्पनीय है जो इस वृक्ष के सदैव रोगरहित रहने से भी प्रकट होती है. बिश्नोई
साहित्य के गहन अध्यन से यह बात उजागर हो सकती है जिस पर मैं प्रयत्नरत हूँ. इस
वृक्ष की उत्त्पति एंव विकास (Origin & evolution) का अध्ययन भी इसके
बिश्नोइज्म से सबंध पर और अधिक प्रकाश डाल सकता है. बिश्नोई श्रद्धा से आकंठ जुड़े
इस वृक्ष का उद्धार इसे बिश्नोई धर्मस्थलों एंव घरों में अधिक से अधिक उगाकर एंव प्राकृतिक
निवास (Natural habitat) में इसके अत्यधिक दोहन (Overexploitation)
पर नियन्त्रण करके
किया जा सकता है.
लालासर की निर्वाण कंकेड़ी
की छाँव में होने वाले अलौकिक अध्यात्मिक अनुभव के हम सब साक्षी हैं. इसी कंकेड़ी
के कुछ बीज मैंने 2011 में अपनी यात्रा के दौरान इक्कठे किये थे और उनसे उत्पन्न कुछ पौधे रांची
(झारखण्ड) में प्रतिकूल जलवायु के उपरान्त भी सफलतापूर्वक बढ़ रहे हैं. क्या यह भी
इस वृक्ष की अलौकिकता का एक और संकेत है?
संतोष पुनिया
(Inspiration) प्रेरणा: भगवान जाम्भोजी
(Dedication) समर्पण: मेरी उन पूर्वज करमा
एंव गौरां को समर्पित जिन्होंने बिश्नोइज्म में आत्मबलिदानों की गौरवशाली परम्परा
का आरम्भ किया.
(Acknowledgements) आभार: विष्णु बिश्नोई https://www.facebook.com/Jaani29
जय
बिश्नोई https://www.facebook.com/jb.jaipur
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