“प्रत्युत्तर”
बनके मेघ उठी हूँ, बनके बूँद बैठूंगी,
दिन वह भी दूर नही जब पूर्व दिशा से
उगुंगी.
मैं ही हूँ अब चेहरा तुम्हारा क्यों न तुम
अब यह मान लो?
कमान से कब का निकल चुका है तीर
औकात में रहने की धमकियां देने वालो ये
जान लो.
औकात की परिभाषाओं के दायरे को मिटाने की
ठानी है,
धमकियों के शब्दकोश ढोने वालो, हार मैंने
भी कब मानी है?
प्रेरित हूँ, प्रक्षेपित हूँ, हूँ प्रण
सहित,
प्रथा, व्यथा से मुक्त हूँ, हूँ शरण रहित,
लक्ष्य साध बढ़ी हूँ,
जीवन पुस्तक पढ़ी हूँ,
वर्षा की महक हूँ, ज्येष्ठ की दहक हूँ,
अग्नि की लहक हूँ, घाव की टहक हूँ
हिला नही जो स्खलनों से वही तो पहाड़ हूँ
निस्तब्ध स्याह कानन की मैं ही तो चिंघाड़
हूँ
तौला जिन्होंने मेरे प्राणों को उन नपुंसक
धमकियों को धिक्कार है
ना टकराना नारी ‘पंथ श्रेष्ठ’ से, यहाँ शिकारी
ही शिकार है
संतोष पुनिया (27.08.2013/ 9:55 PM)
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