Saturday, May 26, 2012


बिश्नोई व्यंजनों के माध्यम से बिश्नोई संस्कृति के उत्थान की परिकल्पना
विभिन्न मानव संस्कृतियों में व्यंजनों की महत्वपूर्णता आदि काल से ही रही है. विश्व की महान सभ्यताओं व संस्कृतियों ने अनेकानेक विशिष्ट व्यंजन विधियों का सृजन किया है. पुरातन काल से ही व्यंजनों ने संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व किया है. व्यंजनों में विविधता समुदायों की सांस्कृतिक सम्पन्नता का कारण एंव द्योतक रही है. व्यंजनों के माध्यम से सांस्कृतिक दर्शन का प्रसार हुआ है तथा संस्कृतियाँ फली-फूली हैं. व्यंजन केवल मात्र क्षुधा शांत करने के माध्यम ही नहीं अपितु एक समग्र संस्कृति का आदर्श नमूना भी होते हैं. रेस्तरां में थाई, चाईनीज, इतालियन, साउथ इंडियन आदि खाना हमें अल्प मात्र में ही सही किन्तु विश्व की इन महान संस्कृतियों का बोध कराता है. यह इस बात का प्रबल प्रमाण है की एक व्यंजन के माध्यम से हम एक सम्पूर्ण संस्कृति की झलक पा सकते हैं तथा एक व्यंजन के माध्यम से ही उक्त संस्कृति हम तक प्रसारित हो जाती है. 
पांच शताब्दी पुरानी बिश्नोई संस्कृति में भी कुछ विशिष्ट व्यंजनों एंव व्यंजन विधियों का सृजन हुआ. बिश्नोई संस्कृति में व्यंजनों की प्रचुर विविधता उपलब्ध है किन्तु एकाधिक कारणों से बिश्नोई व्यंजन की अवधारणा अभी तक साकार नही हो पाई है. बिश्नोई व्यंजनों को अभी तक वह स्थान अथवा लोकप्रियता नही प्राप्त हो सकी है जिसके की यथार्थ में वे अधिकारी हैं. 
बिश्नोई व्यंजनों की विशेषता इनको बनाने की विधि (रेसिपी) का अति साधारण होना, बनाने में अत्यधिक  आसान होना, तथा देसी घी में बनना है. इनकी स्वास्थ्यवर्धक प्रकृति इन्हें आधुनिक स्वास्थ्य सजग विश्व में और अधिक प्रासंगिक बना देती है. बिश्नोई व्यंजनों में अपुष्टिकारक तथा अनावश्यक मसालों का नितांत अभाव होता है एंव इनमे घटकों (इनग्रेडिऐंट्स) की संख्या अत्यधिक कम होती है. ये सभी व्यंजन व्यवसायीकरण किये जाने पर लाभ देने तथा बिश्नोई संस्कृति के वांछित प्रसार का सामर्थ्य  रखते हैं. कुछ विशेष बिश्नोई व्यंजनों का वर्णन यहाँ किया जा रहा है. 
1.     बिश्नोई कढ़ी: कढ़ी एक विशुद्ध बिश्नोई व्यंजन है जो की आदिकाल से ही अबिश्नोई क्षेत्रों में बिश्नोइयो की पहचान रहा है. बिश्नोइयो व कढ़ी के बारे में एक दृष्टान्त अत्यधिक प्रसिद्ध है. एक बिश्नोई समारोह में सामूहिक भोजन कर रहे लोगों से कढ़ी से भरी बाल्टी उठाए हुए एक आदमी बार बार पूछता है, " भल: लही के?" (क्या आप और लेंगे?) भोजन कर रहा एक व्यक्ति यह समझता है की संभवत: "भल:" समारोह में परोसा जा रहा कोई अतिरिक्त बिश्नोई व्यंजन है तथा वह कहता है, " हाँ मैं भल: लूँगा." जब बाल्टी उठाया हुआ आदमी उसकी थाली में कढ़ी डालता है तब उसकी समझ में आता है की "भल:" का अर्थ "दोबारा लेना" अथवा "और लेना" था. अब भी बिश्नोई गाँवो में कुछ लोग मजाक के लहजे में कढ़ी की बाल्टी उठाये हुए व्यक्ति को पुकार कर कहते हैं,  "यहाँ आओ, मैं "भल:" लूँगा.".  इस  दृष्टान्त  से ही हमारी सांस्कृतिक परंपरा में कढ़ी के महत्वपूर्ण स्थान का बोध हो जाता है. 
2.     हलवा: शुद्ध देसी घी में बनाया जाने वाला हलवा जिसे स्थानीय भाषा में 'हीरो' भी कहते हैं किसी के भी मुंह में पानी ले आने के लिए पर्याप्त है. हलवा बनाने की सैंकड़ों विधियाँ वर्तमान में प्रचलित होंगी किन्तु बिश्नोई विधि से बनाये गए हलवे का कोई सानी नहीं है. यह प्रत्येक  बिश्नोई समारोह का अभिन्न अंग होता है. हलवे को कढ़ी के साथ मिलकर खाया जाना मौलिक बिश्नोई परम्परा है तथा किसी भी समुदाय अथवा समाज में यह नही पाई जाती है. बिश्नोई जनमानस में हलवा सर्वाधिक प्रिय व्यंजनों में से एक है. 
3.     खीर: खीर वैदिक काल का भारतीय व्यंजन है, जिसे बिश्नोइज्म ने आरम्भ से ही आत्मसात कर लिया था. प्रतेक बिश्नोई परिवार में अमावश्या  तथा पूर्णिमा के दिन खीर बनाने की एक लम्बी  परम्परा रही है जो कालक्रम  में विलुप्तता की ओर अग्रसर है. खीर बिश्नोई समाज में एक अत्यंत ही लोकप्रिय का व्यंजन का स्थान रखता है. 
4.     गुलगुले: यद्यपि गुलगुले अथवा इस से मिलते जुलते व्यंजन कई संस्कृतियों में अस्तित्व में रहे हैं किन्तु इनको बनाने की बिश्नोई विधि एकदम भिन्न है. नया मास अथवा नव वर्ष शनिवार को लगने पर, वर्षा होने पर, मकर सक्रांति के दिन अथवा फसलो को कटाई आरम्भ होने (विशेषत: कपास की पहली चुगाई) पर खेत में  गुलगुले  बनाना बिश्नोइज्म में एक लम्बी परम्परा रही है. यह व्यंजन बिश्नोई सांस्कृतिक परम्परा में सदैव अवस्थित रहा है एंव इसका सम्पूर्ण बिश्नोईकरण हो चुका है. 
5.     सुहाली: गुलगुलों के साथ प्राय: निरापवाद रूप से बनाया जाने वाला यह त्रिकोणीय मीठा व्यंजन एक प्राचीन बिश्नोई व्यंजन है. इस व्यंजन को कड़े गुंधे हुए आटे जिसमे गुड मिला हो, से बनाया जाता है. पानी की मात्रा कम होने के कारन इनका भण्डारण तुलनात्मक रूप से अधिक दिनों तक किया जा सकता है तथा सुबह की चाय अथवा दूध के साथ इन्हें नाश्ते (स्नैक्स) के रूप में खाया जाता है. 
गुलगुले एंव सुहाली बिश्नोई समुदाय में यात्राओं के समय साथ लेकर चलने वाले व्यंजन रहे हैं इन्हें परोसना आसान है, खाने के लिए इनके साथ में सब्जी, सॉस अथवा अन्य किसी चीज़ की आवश्यकता नही रहती तथा बैग में अन्य सामान के साथ रखने में इनसे रिसाव का भय नही रहता है. 
6.     राबड़ी: भारतीय संस्कृति में राबड़ी व्यंजन का भिन्न क्षेत्रों में भिन्न अर्थ है. राबड़ी व्यंजन को बनाने की विधि, घटक (इनग्रेडिऐंट्स), स्वाद इत्यादि अलग अलग हैं. बिश्नोई विधि से बनायीं जाने वाली राबड़ी बाजरे के आटे से बनायीं जाती है तथा खाने में नमकीन होती है. इसे दूध, दही अथवा छाछ के साथ मिलाकार परोसा जाता है. सामान्यत: बिश्नोई घरों में इसे शाम में दूध में तो सुबह में दही अथवा छाछ के साथ परोसा जाता है. सुबह में इसे नाश्ते के रूप में प्रयोग लिया जाता है. यह एक अत्यंत ही महतवपूर्ण बिश्नोई व्यंजन है जिसमे औषधीय गुण है. हमारे पूर्वज सर्दी जुकाम  होने पर या फिर लू लगने पर इसका प्रयोग करते थे. यह व्यंजन भी लगभग विलुप्त ता की कगार पर है. 
7.     चना दाल: मिटटी के बर्तन में उपलों की आग पर बनायीं जाने वाली चने की दाल एक प्राचीन बिश्नोई व्यंजन है.  मिट्टी की बनी हुई एक प्रकार की भट्ठी जिसे स्थानीय बोली में 'हारा' कहते हैं, में गोबर के उपलों की आग पर चने की दाल को दोपहर से ही पकने के लिए रख दिया जाता था. इस प्रकार बिश्नोई विधि से बन कर तैयार होने वाली इस दाल का स्वाद अब केवल मात्र कल्पना में ही उपलब्ध है. 
8.     धान: बाजरा व चना को हस्त चालित चक्की में दल कर 'हारा' में बनायीं जाने वाली इस बिश्नोई विशिष्ठ खिचड़ी को धान कहा जाता है. शाम के भोजन के रूप में इसे दूध के साथ मिलाकार परोसा जाता है. होलिका दहन की शाम में 'दूध-धान' का भोजन करना एक मौलिक बिश्नोई परम्परा है. रात के बासी धान को सुबह में दही के साथ नाश्ते में खाया जाना बिश्नोई परिवारों में सदा से ही अस्तित्व में रहा है.  कुछ अपवादों को यदि छोड़ दिया जाये तो धान एक पूर्णत: विलुप्त हो चुका बिश्नोई व्यंजन है जिसको पुनरुत्थान की तुरंत आवश्यकता है. 
 उपरोक्त वर्णित व्यंजनों के अतिरिक्त भी बहुत सारे ऐसे व्यंजन अस्तित्व में रहे हैं जिनसे बिश्नोइज्म का प्रत्यक्ष बोध होता है.  इनको लोकप्रिय बनाने के लिए इनकी मानक विधि का निबंधन के माध्यम से संरक्षण किया जाना आवशयक है. विभिन्न प्रान्तों में बिश्नोई लोगों के द्वारा संचालित भोजनालयों के 'मैन्यु' में 'बिश्नोई  व्यंजन  ' भी एक भाग होना चाहिए तथा इन भोजनालयों में भी ये व्यंजन परोसे जाने चाहिए. प्रत्येक बिश्नोई को अपने घर में होने वाले समारोह में बिश्नोई व्यंजनों को सम्मिलित करना चाहिए. बिश्नोई धर्म सथलों में लगने वाले मेलों में इन व्यंजनों के स्टाल कोंट्रक्ट आधार पर लगवाए जा सकते हैं. इनको आधुनिक जीवन शैली के साथ जोड़ने के लिए शहर वासी व युवा बिश्नोइयो के मध्य लोकप्रिय बनाये जाने के उपाय किये जाने होंगे. इनके स्वास्थ्यवर्धक पक्ष की पुष्टि वैज्ञानिक अनुसन्धान के द्वारा करवा कर इन्हें लोकप्रिय एंव स्वीकार्य बनाया जा सकता है. बिश्नोइज्म से सम्बंधित सभी पत्रिकाएं, विशेषत: बिश्नोइज्म का 'मुख-पत्र' अमर-ज्योति इन व्यंजनों की विधि एंव लोकप्रियता को प्रत्येक बिश्नोई घर घर तक पहुंचा सकती है. 
अंत में बिना किसी संदेह के मेरा यह मानना  है की यदि हम बिश्नोई व्यंजनों का मानक स्वरुप विकसित करने में तथा इन्हें लोकप्रिय बनाने में सफल हो गए तो बिश्नोइज्म के प्रसार की मंद पद चुकी गति को पंख लग जायेंगे. बिश्नोइज्म की वैश्विक पटल पर पहचान स्थापित करने के हमारे  सामूहिक उद्देश्य की पूर्ति में बिश्नोई  व्यंजन  मील का पत्थर सिद्ध होंगे, ऐसा मैं विश्वास रखती हूं.

संतोष पुनिया 

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