बिश्नोई त्योंहारों के माध्यम से बिश्नोइज्म के वैश्विक पहचान के उद्देश्य की प्राप्ति की परिकल्पना
विभिन्न समुदायों से निर्मित आधुनिक विश्व में प्रत्येक समुदाय किंचित विशष्ट अभिलक्षणों के कारणस्वरुप अन्य समकालीन समुदायों से भिन्न व अनूठा है. इन अभिलक्षणों का विस्तार पृथक व अनूठे संस्कार, आचार, प्रथा, परिपाटी, रीती0रिवाज़ तथा परम्पराओं तक है. एक समुदाय विशेष का अभिलक्षण समुच्य इसे दुसरे समुदायों से पृथक व सीमांकितकरता है. इनमे से एक सर्वथा प्राथमिक, मूलभूत, मौलिक व अनिवार्य अभिलक्षण उक्त समुदाय द्वारा मनाये जाने वाले पर्वों को माना गया है. पर्व, उत्सव अथवा त्योंहारों की उत्पत्ति की प्रक्रिया यद्यपि अज्ञात है किन्तु इनकी उपस्थिति प्रत्येक ज्ञात मानव सभ्यता में निरापवाद रूप से रही है. पर्व किसी भी स्थानीय समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से मनाया जाने वाला वह आयोजन है जो साधारणत: किसी ध्येय से प्रेरित होता है व उक्त समुदाय के किसी विशेष पहलू को
चिन्हांकित करता है. पर्वो को मानाने का सामान्य कारण धार्मिक ही होता है किन्तु ये हर्ष, गर्व, व पवित्र स्मृतियों जैसी मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति हेतु भी आयोजित किये जाते है. ये सम्मान देने का माध्यम भी हो सकते हैं व अंततोगत्वा सामाजिक उत्प्रेरणा का स्रोत सिद्ध होते हैं.
अधिकांश त्योंहार वस्तुत: स्मरोणत्सव होते हैं जिन्हें प्राय: प्रतिवार्षिक तिथियों में आयोजित किया जाता है. अन्य प्रकार के त्योंहार मौसमी परिवर्तन को अंतर्भूत करते हैं. उत्सव मुख्यत: समुदायों की सांस्कृतिक विरासत को प्रसारित करते हैं. संस्कृतियाँ पर्वों से ही स्वावलंबन प्राप्त करती हैं. यह पर्वों के सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करता है. त्योंहार हमारी सभ्यता के दर्पण हैं. ये सामाजिक जीवन को उत्तमतर करने का श्रेष्ठ माध्यम हैं. सामाजिक संघी-भाव, सम्बन्ध-बोध व परस्पर सहयोग भावना की वृद्धि तथा मतभेद निवारण में इनकी भूमिका संदेह से परे है. धार्मिक पर्व अभिसरण का महत्वपूर्ण कारक होते हैं तथा सामुदायिक धर्म के अनुमोदन में परिणित होते हैं. नाना प्रकार के उत्सव समुदाय विशेषकी सामुदायिक छवि को उत्कृष्ट बनाते हैं तथा इसकी सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रसार करते हैं. सामाजिक मनोरंजन उपलब्ध करवाने के अतिरिक्त ये हमारी पुरातन परम्पराओं, स्मृतियों तथा इतिहास को उत्तरजीवी रखने का कार्य करते हैं.त्योंहार आनंद व हर्ष की उत्पत्ति करते हैं. ये हमारी परम्पराओं के प्रति हमारे सम्मान के द्योतक हैं तथा एतिहासिक ज्ञान के आगामी पीढ़ियों में हस्तांतरण के माध्यम भी हैं.
पर्वों की प्रकृति नवीन व स्फूर्तिदायक होती हैं तथा सभ्यताएं इनकी अनुपस्थिति में उत्तरजीवी नही हो पाती हैं. नवीनता इंसानी जीवन के माध्यम से सभ्यताओं को अभिप्रेरित करती हैं. उत्सव सामुदायिक उन्नति के इंधन होते हैं तथा सदैव समुदाय की समग्र पहचान के मूलभूत व अभिन्न अंग होते हैं. बिना त्योंहार के समुदाय शीघ्र ही निष्क्रिय, जड़ अज्ञात तथा अनिर्दिष्ट हो जाते हैं. तथापि किसी भी उत्सव की महतवपूर्णता उच्च स्तर की गरिमा, महत्त्व, सन्देश एंव सटीक सामयिक व एतिहासिक आशय के अभाव में शून्य हो जाती है.
क्या 525 वर्षीय बिश्नोई समुदाय में त्योंहारों के सपष्ट अभाव को बिश्नोइज्म की अज्ञातता, अप्रसार एंव प्रसुप्तावस्था का कारक माना जा सकता है. धर्मों को लोकप्रिय बनाने में त्योंहारों की भूमिका अत्यंत ही महत्वपूर्ण होती है. विश्व के महान धर्मों के त्योंहार वैश्विक रूप से लोकप्रिय हैं. 'धर्म त्योंहारों के माध्यम से फैलते है' कहना किसी भी प्रकार से अतिश्योक्ति नही माना जा सकता है. पर्व जिस धर्म से सम्बन्धित होते हैं उस धर्म को शीघ्र एंव सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करते हैं. ये ना केवल स्व-बोध का माध्यम हैं वरन अन्यों को उक्त धर्म की ओर आकर्षित करने की अदभुत क्षमता भी रखते हैं.
बिश्नोइज्म के सम्बन्ध में हमारा केवल ये जानना की हम बिश्नोई हैं एंव इसके अतिरिक्त कुछ भी ना जानना ना तो पर्याप्त है और ना ही हमारे धर्म के लिए किसी भी प्रकार से अनुकूल स्थिति का निर्माण करता है. इसके लिए ना केवल हमें बिश्नोइज्म के बारे में अधिकोधिक ज्ञानार्जन करना होगा अपितु यह ज्ञान परिवार के बच्चों को आरम्भ से ही देना होगा. इस हेतु हमें एक तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है तथा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु त्योंहारों से उत्तमतर तंत्र वर्तमान परिस्थितियों में दृष्टिगोचर नही होता है. जब हम स्वयं अपने बिश्नोई होने के तथ्य के अतिरिक्त हमारे धर्म के बारे में जानेंगे तभी हम अन्यों को इसके बारे में बता पाएंगे व उन्हें सफलतापूर्वक आकर्षित कर पाएंगे. पुस्तकें ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत कदापि नही है. हमारी धार्मिक परम्पराएँ भी हमारे धर्म व इतिहास के बारे में हमारे ज्ञान का स्रोत बन सकती हैं. बिश्नोइज्म में त्योंहारों की ज्ञानवर्धक परम्पराओं का नितांत आभाव है. हमारे धर्म के इतिहास में ऐसी महान घटनाएँ घटी हैं जिन्हें आधुनिक बिश्नोई समुदाय पर्व के रूप में मनाकर प्रेरणा पा सकता है. इन त्योंहारों के महत्व को समझना ही बिश्नोई समुदाय के युवाओं, व बच्चों के लिए आत्मबोध व गर्व का स्रोत होगा. विभिन्न ऐतिहासिक कारणों सेनिम्नलिखित पांच त्योंहारों को बिश्नोई पर्व माना जा सकता है एंव इन्हें मनाने की स्वस्थ व फलदायी परम्परा आरम्भ की जा सकती है. ये पर्व ना केवल बिश्नोई समुदाय को सांस्कृतिक रूप से संपन्न करेंगे अपितु हमारे महान धर्म का कल्पनातीत प्रसार करने में भी सफल सिद्ध होंगे.
अधिकांश त्योंहार वस्तुत: स्मरोणत्सव होते हैं जिन्हें प्राय: प्रतिवार्षिक तिथियों में आयोजित किया जाता है. अन्य प्रकार के त्योंहार मौसमी परिवर्तन को अंतर्भूत करते हैं. उत्सव मुख्यत: समुदायों की सांस्कृतिक विरासत को प्रसारित करते हैं. संस्कृतियाँ पर्वों से ही स्वावलंबन प्राप्त करती हैं. यह पर्वों के सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करता है. त्योंहार हमारी सभ्यता के दर्पण हैं. ये सामाजिक जीवन को उत्तमतर करने का श्रेष्ठ माध्यम हैं. सामाजिक संघी-भाव, सम्बन्ध-बोध व परस्पर सहयोग भावना की वृद्धि तथा मतभेद निवारण में इनकी भूमिका संदेह से परे है. धार्मिक पर्व अभिसरण का महत्वपूर्ण कारक होते हैं तथा सामुदायिक धर्म के अनुमोदन में परिणित होते हैं. नाना प्रकार के उत्सव समुदाय विशेषकी सामुदायिक छवि को उत्कृष्ट बनाते हैं तथा इसकी सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रसार करते हैं. सामाजिक मनोरंजन उपलब्ध करवाने के अतिरिक्त ये हमारी पुरातन परम्पराओं, स्मृतियों तथा इतिहास को उत्तरजीवी रखने का कार्य करते हैं.त्योंहार आनंद व हर्ष की उत्पत्ति करते हैं. ये हमारी परम्पराओं के प्रति हमारे सम्मान के द्योतक हैं तथा एतिहासिक ज्ञान के आगामी पीढ़ियों में हस्तांतरण के माध्यम भी हैं.
पर्वों की प्रकृति नवीन व स्फूर्तिदायक होती हैं तथा सभ्यताएं इनकी अनुपस्थिति में उत्तरजीवी नही हो पाती हैं. नवीनता इंसानी जीवन के माध्यम से सभ्यताओं को अभिप्रेरित करती हैं. उत्सव सामुदायिक उन्नति के इंधन होते हैं तथा सदैव समुदाय की समग्र पहचान के मूलभूत व अभिन्न अंग होते हैं. बिना त्योंहार के समुदाय शीघ्र ही निष्क्रिय, जड़ अज्ञात तथा अनिर्दिष्ट हो जाते हैं. तथापि किसी भी उत्सव की महतवपूर्णता उच्च स्तर की गरिमा, महत्त्व, सन्देश एंव सटीक सामयिक व एतिहासिक आशय के अभाव में शून्य हो जाती है.
क्या 525 वर्षीय बिश्नोई समुदाय में त्योंहारों के सपष्ट अभाव को बिश्नोइज्म की अज्ञातता, अप्रसार एंव प्रसुप्तावस्था का कारक माना जा सकता है. धर्मों को लोकप्रिय बनाने में त्योंहारों की भूमिका अत्यंत ही महत्वपूर्ण होती है. विश्व के महान धर्मों के त्योंहार वैश्विक रूप से लोकप्रिय हैं. 'धर्म त्योंहारों के माध्यम से फैलते है' कहना किसी भी प्रकार से अतिश्योक्ति नही माना जा सकता है. पर्व जिस धर्म से सम्बन्धित होते हैं उस धर्म को शीघ्र एंव सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करते हैं. ये ना केवल स्व-बोध का माध्यम हैं वरन अन्यों को उक्त धर्म की ओर आकर्षित करने की अदभुत क्षमता भी रखते हैं.
बिश्नोइज्म के सम्बन्ध में हमारा केवल ये जानना की हम बिश्नोई हैं एंव इसके अतिरिक्त कुछ भी ना जानना ना तो पर्याप्त है और ना ही हमारे धर्म के लिए किसी भी प्रकार से अनुकूल स्थिति का निर्माण करता है. इसके लिए ना केवल हमें बिश्नोइज्म के बारे में अधिकोधिक ज्ञानार्जन करना होगा अपितु यह ज्ञान परिवार के बच्चों को आरम्भ से ही देना होगा. इस हेतु हमें एक तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है तथा इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु त्योंहारों से उत्तमतर तंत्र वर्तमान परिस्थितियों में दृष्टिगोचर नही होता है. जब हम स्वयं अपने बिश्नोई होने के तथ्य के अतिरिक्त हमारे धर्म के बारे में जानेंगे तभी हम अन्यों को इसके बारे में बता पाएंगे व उन्हें सफलतापूर्वक आकर्षित कर पाएंगे. पुस्तकें ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत कदापि नही है. हमारी धार्मिक परम्पराएँ भी हमारे धर्म व इतिहास के बारे में हमारे ज्ञान का स्रोत बन सकती हैं. बिश्नोइज्म में त्योंहारों की ज्ञानवर्धक परम्पराओं का नितांत आभाव है. हमारे धर्म के इतिहास में ऐसी महान घटनाएँ घटी हैं जिन्हें आधुनिक बिश्नोई समुदाय पर्व के रूप में मनाकर प्रेरणा पा सकता है. इन त्योंहारों के महत्व को समझना ही बिश्नोई समुदाय के युवाओं, व बच्चों के लिए आत्मबोध व गर्व का स्रोत होगा. विभिन्न ऐतिहासिक कारणों सेनिम्नलिखित पांच त्योंहारों को बिश्नोई पर्व माना जा सकता है एंव इन्हें मनाने की स्वस्थ व फलदायी परम्परा आरम्भ की जा सकती है. ये पर्व ना केवल बिश्नोई समुदाय को सांस्कृतिक रूप से संपन्न करेंगे अपितु हमारे महान धर्म का कल्पनातीत प्रसार करने में भी सफल सिद्ध होंगे.
1. जन्माष्टमी: भाद्रपद बदी अष्टमी को श्री गुरु जम्भेश्वर
भगवान् अवतरित हुए थे तथा इस हेतु जन्माष्टमी का दिन बिश्नोई समुदाय के लिए अति
महत्वपूर्ण एंव हर्ष विषयक माना जाना चाहिए. इस दिन प्रत्येक बिश्नोई परिवार को
सामूहिक रूप से सबदवाणी का पाठ करते हुए हवन में आहुति देनी चाहिए व पाहल ग्रहण
करना चाहिए. हवन की
सम्पूर्णता के उपरान्त परिवार के वरिष्ठ सदस्य के द्वारा 'श्री गुरु जम्भेश्वर अवतार कथा' का पुरे परिवार के समक्ष उच्च स्वर में पाठ
किया जाना चाहिए. बिश्नोई गाँव की परिधि में अंशदान आधारित चबूतरा
बनाया जा सकता है जिस पर बिश्नोई पर्वो के समय पक्षियों के लिए दाना व पानी रखा जा
सके. बिश्नोई मंदिर के साथ-साथ 'बिश्नोई चबूतरे' को भी बिश्नोई गाँव के अभिन्न व अनिवार्य अंग
के रूप में स्थापित किया जा सकता है. जन्माष्टमी के दिन प्रत्येक बिश्नोई परिवार
दरिद्रों में अन्न व भोजन का दान करे एंव प्रत्येक प्रकार से हर्ष व उल्लास की
अभिव्यक्ति करे.
2. खेजडली बलिदान दिवस: खेजडली में बिश्नोइयो के द्वारा दिए गए
आत्मबलिदान के बारे में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखने के समान है. यह बलिदान
शाश्वत है एंव श्रेष्ठता का चरम है तथा बिश्नोई समुदाय की समग्र पहचान का सर्वाधिक
महत्वपूर्ण घटक है. यह किसी भी मानव समुदाय द्वारा प्रतिपादित महानतम कृत्य है.
यदि हम अपने महानतम कृत्य को भी समुचित रूप में प्रक्षेपित करने में चूक गए तो
बिश्नोइज्म की पहचान सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं हो पायेगी व भविष्य में भी हमारे
अज्ञात बने रहने की संभावना प्रबल हो जाएगी. "बिश्नोई क्या होते हैं?" प्रश्न हमसे बार बार पूछा जाता रहेगा. खेजडली
बलिदान भाद्रपद शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन दिया गया था तथा यह बिश्नोइज्म का
स्वाभाविक पर्व है.
इस दिन प्रात: सपरिवार सम्पूर्ण
सबदवाणी पाठ सहित हवन करें
एंव पाहल ग्रहण करें. हवन के
उपरान्त परिवार का वरिष्ठ सदस्य 'खेजडली शहीद कथा' अनिवार्य रूप से समस्त परिवार के समक्ष
उच्चारित करे. इस कथा का पाठ ही खेजडली शहीदों को सच्ची श्रद्धांजली मानी जानी
चाहिए. ३६३ शहीदों के नाम भी इसी कर्म में उच्च स्वर में बोले जाने चाहिए.
तत्पश्चात बिश्नोई औरतें सामूहिक रूप से खेजडली शहीदों का यशगान करते हुए गाँव की
परिधि में स्थित वृक्षों को स्मृतिस्वरूप रक्षा-सूत्र बांधे. बिश्नोई पुरुष इस दिन
सामूहिक व अनिवार्य रूप से वृक्षारोपण करें. इन समस्त गतिविधियों को स्थानीय
समाचार पत्रों में कवर किया जाना भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. इस दिन स्थानीय
प्रदेश शासन को खेजडली बलिदान की पावन स्मृति में वार्षिक राजकीय अवकाश घोषित करने
के लिए ज्ञापन दिया जाना चाहिए. यह ज्ञापन प्रत्येक वर्ष खेजडली बलिदान दिवस के
अवसर पर तब तक दिया जाना चाहिए जब तक हमारी उद्देश्यपूर्ति नही हो जाये.
यह त्योंहार गर्व व स्मृति के प्रतीक
के रूप में मनाया जाना चाहिए तथा इस दिन किसी भी शुभ कार्य अथवा संस्कार का आयोजन
नही किया जाना चाहिए. इस दिन प्रत्येक बिश्नोई परिवार के द्वारा 'बिश्नोई चबूतरे' पर
पक्षियों के लिए अन्न व जल रखा जाना चाहिए तथा निर्धनों को बिना छुआछूत के भोजन
करवाकर व अन्नदान करके शुभ सन्देश का सम्प्रेषण किया जाना चाहिए.
3. प्रवर्तन: भगवान् श्री गुरु जम्भेश्वर जी ने कृष्ण पक्ष
कार्तिक बदी अष्टमी से बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन आरम्भ किया था तथा इस तिथि को 'प्रवर्तन' पर्व के
रूप में मनाया जा सकता है. इस दिन प्रत्येक बिश्नोई परिवार सम्पूर्ण सबदवाणी पाठ
सहित हवन करे व पाहल ग्रहण करे. इसके उपरान्त परिवार के वरिष्ठ सदस्य के द्वारा
उन्नतीस बिश्नोई नियम उच्च स्वर में ध्वनित किये जाने चाहिए तथा अंत में
"माने सो बिश्नोई" का घोष तीन बार किया जाना चाहिए. इस दिन घर के मुख्य
द्वार, प्रतिष्ठान, वाहन इत्यादि पर भाग्य तथा शुभ सूचक "श्री
जम्भाणी चिन्ह" बनायें. 'प्रवर्तन' के दिन
मित्रों, सम्बन्धियों व शुभ-चिंतकों में परस्पर
शुभकामनाओं व उपहारों का आदान-प्रदान किया जाना चाहिए. प्रत्येक बिश्नोई परिवार 'प्रवर्तन' के दिन
एक निर्धन परिवार को भोजन अवश्य कराये तथा 'बिश्नोई
चबूतरे' पर दाना अवश्य रखे. ऐसा माना जा सकता है की यदि
हम 'प्रवर्तन' के दिन
उन्नतीस नियमों को उच्चारित करते समय इनके पालन का संकल्प लें तो हमारे द्वारा
पूर्व में की गयी गलतियाँ श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान् द्वारा क्षमा कर दी जायेंगी.
4. चिलत-नवमी: मार्गशीष, कृष्ण पक्ष नवमी के दिन श्री गुरु जी का
महानिर्वाण हुआ था. जिस
कार्य के लिए भगवान विष्णु ने अवतार लिया था वह इस दिन पूर्ण हो गया था. इस दिन को चिलत नवमी के नाम से जाना जाता है तथा यह दिन बिश्नोइज्म के सम्पूर्णता
प्राप्त करने का द्योतक है. यह
प्रत्येक प्रकार से अत्यंत ही पवित्र दिन है. इस शुभ दिन के प्रात: में हवन व पाहल के उपरांत समस्त परिवार के
सम्मुख 'श्री गुरु जम्भेश्वर महानिर्वाण कथा' का पाठ किया जाना चाहिए. तत्पश्चात प्रत्येक
बिश्नोई घर के उच्चतम स्थान पर भगवे रंग का बिश्नोई ध्वज जिसके मध्य में श्वेत रंग
का "श्री जम्भाणी चिन्ह" बना हो, अवश्य
स्थापित किया जाना चाहिए. इस दिन यदि संभव हो तो श्वेत वस्त्र धारण करें
व एक समय ही भोजन करें. चिलत
नवमी को निर्धनों में अन्नदान करें और पशु-पक्षियों को दाना-पानी दें.
5. होली: बिश्नोइयो के प्रहलाद पंथी होने के कारण होली
को बिश्नोई पंचोत्सव में सम्मिलित किया जा सकता है. प्रहलाद को दिए वचन के अनुसार
ही श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान् ने अवतार लिया था. इस दिन सूर्यास्त से पहले भोजन
करें तथा सूतक माने. संध्या समय में भगवान विष्णु द्वारा प्रहलाद को दिए वचन व
भगवान् जाम्भोजी के अवतरण की कथा परिवार के बच्चों को अवश्य सुनाएँ. दुसरे दिन हवन
व पाहल से शुद्ध होकर विभिन्न प्रकार से हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति करें. इस दिन भी
बिश्नोई ध्वज को अपने घर में अवश्य ही स्थापित करें. दरिद्रों में अन्नदान व
पशु-पक्षियों के लिए दाना-पानी रखना इस त्योंहार का भी अनिवार्य अंग होना चाहिए.
उपरोक्त वर्णित 'बिश्नोई
पंचोत्सव' प्राकृतिक रूप से बिश्नोई त्योंहार हैं. इन्हें
लोकप्रिय बनाने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं.
1. बिश्नोई समुदाय से सम्बन्धित सभी पत्रिकाओं की भूमिका बिश्नोई पंचोत्सव के प्रसार में महत्वपूर्ण होगी. सभी बिश्नोई पत्रिकाओं को बिश्नोई अष्टधाम के साथ-साथ बिश्नोई पंचोत्सव को भी पत्रिका के प्रत्येक अंक में स्थान देना चाहिए.
1. बिश्नोई समुदाय से सम्बन्धित सभी पत्रिकाओं की भूमिका बिश्नोई पंचोत्सव के प्रसार में महत्वपूर्ण होगी. सभी बिश्नोई पत्रिकाओं को बिश्नोई अष्टधाम के साथ-साथ बिश्नोई पंचोत्सव को भी पत्रिका के प्रत्येक अंक में स्थान देना चाहिए.
2. अखिल भारतीय बिश्नोई महासभा बिश्नोई
पंचोत्सव के प्रचार के लिए 'बिश्नोई पर्व प्रचार वाहिनी' का गठन कर सकती है, जिसके स्वयंसेवक घर-घर- जाकर इन पर्वों से
लोगों को अवगत करवाएं.
3. बिश्नोई साधू-संतों को भी इस समाज-निर्माण
के कार्य में अपना योगदान देते हुए, बिश्नोई
गांवो में भिक्षाटन करते हुए इन पर्वों के प्रचार में भूमिका निभानी चाहिए.
4. बिश्नोई समाज में गायनाचार्यों का स्थान
बहुत उच्च माना गया है तथा उन्हें भी प्रत्येक संस्कार के समय बिश्नोई पंचोत्सव का
प्रचार करना चाहिए.
5. बिश्नोई मंदिरों से इन पर्वों की तिथि व
विधि की ससमय व बारम्बार घोषणा की जानी चाहिए.
6. स्थानीय समाचार पत्रों में 'प्रवर्तन' की बधाई
तथा 'खेजडली बलिदान दिवस' की श्रद्धांजलि प्रकाशित करवाएं.
7. बिश्नोई गांवो में स्थित अथवा बिश्नोइयो के
द्वारा संचालित विद्यालयों व अन्य उपक्रमों में बिश्नोई पंचोत्सव का अवकाश रखा जा
सकता है.
इन त्योंहारों के माध्यम से हम अपनी संस्कृति
का प्रसार करने में सफल रहेंगे. इनके माध्यम से अबिश्नोइयो की रूचि भी बिश्नोइज्म
के प्रति बढ़ेगी. अंततोगत्वा बिश्नोई पंचोत्सव बिश्नोइज्म के प्रसार में मील का
पत्थर सिद्ध होंगे, ऐसा मैं विश्वास रखती हूँ.
संतोष पुनिया