Sunday, June 23, 2013







शब्द
 
उपजी हूँ धरा से लिया है शब्द ने संभाल,

शब्द ही है शस्त्र मेरा चुनौती पर रखती हूँ काल

शब्द मधुर, शब्द कठोर, शब्द ही मेरा सार,  

शब्द रूद्र, शब्द शुद्र शब्द मेरा आकार

शब्द से मुक्ति शब्द से शक्ति शब्द में मेरे धार,

शब्द अभिव्यक्ति शब्द आसक्ति शब्द ही मेरा आहार  

घोर स्वयम्भू घनघोर शब्द-प्रहरी शब्द-नायक हूँ,

अंध अशब्द युग में शब्द की परिचायक हूँ

वर्तमान के धरातल पर भविष्य की लेखनी से इतिहास लिखती हूँ,

शब्द-शक्ति से संचालित हूँ न डरती हूँ न थकती हूँ।।

संतोष पुनिया

Monday, February 4, 2013

“कालकूट”




महाराज निष्कंटक का साम्राज्य पूर्व के घने जंगलों से लेकर पश्चिम के पहाड़ों तक फैला हुआ था. पश्चिम पहाड़ों से निकलकर तारिका नदी पूर्व के जंगलों में जा मिलती थी. उपजाऊ भूमि उनतीस प्रकार की फसल उपजाती थी. बाजरा, जौ, मोठ, तीन प्रकार का चना, मसूर, गेहूं, सुगन्धित चावल, सामक, मक्की, उड़द, मूंग, अरहर बड़ी और छोटी सौंफ, काला और भूरा जीरा, चार प्रकार की राई, पांच रंगों की मिर्च, सफ़ेद और काले तिल, मूंगफली, लाल और सफ़ेद आलू, लहसुन, प्याज, चार आकृतियों के काचर, मतीरा, काकड़ीया, तीन रंगों का नरमा, अजवाईन, मेथी, घिया, और कोल्हा की बहुतायत थी. साम्राज्य की समृधि अन्य पडोसी राज्यों के लिए इर्ष्या का कारण थी. महाराज निष्कंटक इस समृद्धि का श्रेय साम्राज्य के बिश्नोई लोगों की मेहनती प्रवृति और तारिका नदी के जल को देते थे.
किन्तु इस खुशहाली का एक और रहस्य था जो महाराज निष्कंटक के अतिरिक्त किसी को भी मालूम नही था. यह एक ऐसा रहस्य था जो राजपरिवार में भी केवल राजा को ही पता होता था एंव राजतिलक अथवा राजा की मृत्यु के समय होने वाले राजा को बताया जाता था. यह राज इतना बड़ा था की साम्राज्य का अस्तित्व इसी पर टिका था. लेकिन यह क्या था, कोई नही जानता था.
फिर एक दिन राजदरबार में अपना गोल-मटोल नाटा शरीर लिए गपोड़ा हांफता हुआ आया. उसके लाल रंग के गोल चेहरे पर बड़ी मूंछे बोलते समय हिलती थी. वह बहुत घबराया हुआ था.
महाराज राज्य में एक विशालकाय तपस्वी आया है. उसकी आँखे गुस्से में लाल और जटायें बिखरी हुई है. वह अपनी लम्बी दाढ़ी और राख जैसे रंग के कारण बहुत भयानक दिखता है. उसके हाथ में एक रहस्यमय काला कमंडल है जिस पर मुंह से आग उगलते दैत्यों के चित्र है, वह अट्टहास करता है और कहता है:
कालकूट कमंडल धारी
कालनेमि का शिष्य भारी
उनतीस बीज गिरे के काजा
भोली प्रजा मुर्ख राजा
निष्कंटक का नाश करूंगा
अमर होकर मैं रहूँगा

गपोड़े की बात सुनकर दरबार में बैठे लोग जोर जोर से हंसने लगे. उसकी हर बात में झूठ बोलने की आदत से सब परिचित थे. किन्तु सिंहासन पर बैठे सम्राट निष्कंटक के होश उड़ गए. ऐसे लगा जैसे उनका सबसे बड़ा रहस्य उजागर हो गया हो.
“क्यों रे गपोड़े तुझे आज झूठ बोलने के लिए कोई और नही मिला जो तू महाराज से झूठ बोलकर सूली चढ़ना चाहता है.” सेनापति भद्राक्ष ने गपोड़े पर कटाक्ष किया.
“महाराज इस कायर भद्राक्ष को चुप रहने का आदेश दीजिये. आज तक आपके साम्राज्य पर किसी ने आक्रमण नही किया इसीलिए यह अपने आपको बहादुर समझता है, यदि कोई आक्रमण करता है तो यह और इसके निकम्मे गुप्तचर सबसे पहले युद्ध छोड़कर भाग निकलेंगे, आज जीवन में पहली बार मैं सत्य बोल रहा हूँ, कृपया मेरा विश्वाश करें और उस तपस्वी से मिल लें क्योंकि कालकूट, कालनेमि, कमंडल, उनतीस बीज आदि का रहस्य आप ही सुलझा सकते हैं.” सभी दरबारी गपोड़े की इस बात का विरोध करने लगे लेकिन सभी को शांत रहने का आदेश देकर महाराज ने कालकूट से उसी समय मिलने का निश्चय किया.
ये देखो आया सम्राट
उनतीस बीज मृत्यु की काट
कमंडल में देख और जा चेत
काले मरुस्थल की काली रेत
एक मुट्ठी जो गिराऊँ
हरे खेतों को रेगिस्तान बनाऊं
बीज जो मिले तो अमर हो जाऊं
फिर कभी भी नजर ना आऊँ
बुरी तरह से डरे हुए सम्राट ने कालकूट को प्रणाम किया. प्रजा अचंभित सी सम्पूर्ण घटना को स्तंभित होकर देखती रही. आगे आने वाले पल क्या होंगे सोच कर हर कोई परेशान हो उठा.  
“हे महान तपस्वी, उनतीस बीजों के रहस्य को आपने उजागर कर दिया है. वे खुशहाली देते हैं अमरता नही देते, वरदान के अनुसार मेरे राजकोष से उन बीजों के निकलते ही मेरे साम्राज्य का विनाश हो जायेगा, इसलिए कृपया हठ ना करें, उन बीजों के अतिरिक्त यदि आपको मेर प्राण भी चाहिए तो मुझे संकोच नही होगा”
सम्राट की बात सुनकर कालकूट ने एक जोरदार हुंकार भरी और कमंडल में से एक मुट्ठी रेत निकाल कर खेतों में फेंक दी. वहां खड़े हजारों लोगों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा जब सामने एक लम्बा विस्तृत हरी फसल से लह्लाहता खेत काले रंग की रेत के विशाल टीले में बदल गया. कालकूट ने अपना हाथ एक बार फिर कमंडल में डाला. भयभीत सम्राट कालकूट के चरणों में गिर पड़े.
“ऐसा ना करें महाराज, मैं आपको उनतीस बीज देने के लिए तैयार हूँ, कृपया मेरे राज्य को मरुस्थल ना बनाएं. कल सूर्योदय के समय इसी स्थान पर मैं वे सभी उनतीस बीज आपको सौंप दूंगा,चाहे उसके बाद मेरे राज्य का विनाश भी हो जाये.”
उस रात सम्राट ने राज्य के सबसे बुद्धिमान लोगों को राजमहल में बुलाकर इस विकट समस्या का हल निकालने को कहा.
बारह वर्ष के समर ने आज अपने खेत को अपनी आँखों के सामने काली रेत के भयावह टीले में बदलते देखा. अपने माता-पिता की तरह वह भी बहुत दुखी था. उसके दादाजी जिन्होंने उसका नाम “समराथल” से समर रखा था ने उसे बताया की एक बार उन्होंने राजपरिवार के बारे में एक कहानी सुनी थी.
सम्राट निष्कंटक के पिता जिस दिन से सम्राट बने उस दिन के बाद राज्य में कभी वर्षा नही हुई. कई वर्ष बीत गए और लोग अपने पशुओं समेत राज्य छोड़कर जाने लगे. तब कालनेमि नाम के एक साधू ने उन्हें भगवान् जाम्भोजी के पास समराथल जाने को कहा. ऐसा कहते हैं की भगवान् जाम्भोजी ने उन्हें उनतीस प्रकार के बीज और कभी भी अकाल न होने का वरदान दिया. दुसरे दिन पूर्व के पहाड़ों से तारिका बह निकली.....